Thursday 19 September 2013

कही – अनकही

मन में है हलचल
जो शब्दों में ना पिरो पा रही
बेचैनी है ऐसी
जिससे खुद को ना रोक पा रही
अनजाने एहसास हैं ये
जिनसे नदारद हूँ मैं
ख़ुशी या गम का
ना नामोनिशान हैं ये
खोज रही हूँ
अपनी ही पहेली का जवाब मैं
क्यूँ खो रही हूँ
अनचाहे एहसास के साथ मैं
ना कह पाने की
ये उलझन भी कितनी अजीब है
सोचा तो जाना
मन का तो कोई भी ना मीत है
रूह भी कुछ
बदलना है चाह रही
मेरी राहों की दिशा का मुख
मोड़ना है चाह रही
फिर क्यूँ नहीं
मैं उनके साथ चल पा रही ?
ये कैसी है दुविधा
जो मेरे दिल को है तोड़े जा रही
व्यथा से अपनी
अनजान ना हूँ
कहने को है इतना
पर फिर यूँ बेजुबान क्यूँ हूँ ?

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