Tuesday 7 May 2013

व्यथित मन


बैठकर अब सबके बीच,
मेरी आंखें वो देखती हैं
जो दौर है आज
वो बीते कल में मेरा था
यूँही दौड़ दौड़ जीवन
मैंने भी गुज़ारा है
जिम्मेदारियों को कंधे पर
हँस हँस ढो कर निभाया है
मन हो रहा कुछ व्यथित है
अकेलेपन से ये ग्रसित है
मैं हँस क मन को समझा रहा
तू क्यूँ पगला रो रहा
तूने भी मेरे संग
वो दौर जीया है
जिसमें सबके संग
ज़िन्दगी का लुत्फ़ लिया है
आज ये दौर इनका है
जीने दे इन्हें
खुश रहने दे इन्हें
जो मेरा आज है
वो भी कल इनका होगा
हर इंसान इस दौर से गुजरेगा
मैं भी यूँही बैठा
सोच रहा अपने मन की व्यथा...

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