Thursday 19 September 2013

शेरो शायरी

उनको कहाँ हमारी याद आती है
वो तो बस हम हैं
जो सांस भी लेते हैं तो उनकी महक से ….

कहने को तो दर्द दिल में होता है
पर आँखों से उसका रिश्ता अजीब है
जो आंसू दिल की दास्ताँ कह जाते हैं….

काश…

काश के हम कुछ ऐसा कर पाते
अपनों को खुद पर फक्र करा पाते
हार को अपनी जीत में बदलकर
नाम को अपने सार्थक कर जाते
काश के हम कुछ ऐसा कर पाते….
हर ज़ख्म ने कुरेदा हमें बार बार
किस्मत ने धकेला हमें और दिए अनगिनत वार
फिर भी अपनी जीत का डंका
काश हम भी बजाकर जाते
काश के हम कुछ ऐसा कर पाते…
रिश्तों में धोखा खाया हमने
समय की चुनोतियों को झेला हमने
तूफानों को पार कर
काश हम अपना आशियाँ बचा पाते
काश के हम कुछ ऐसा कर पाते…
निराशा ना थी जीवन का आधार
हंस कर झेले थे हमने सबके वार
पर आखिर में दम तोड़ चले हम
काश आखरी सांस तक हम भी लड़ पाते
काश के हम कुछ ऐसा कर पाते….

कही – अनकही

मन में है हलचल
जो शब्दों में ना पिरो पा रही
बेचैनी है ऐसी
जिससे खुद को ना रोक पा रही
अनजाने एहसास हैं ये
जिनसे नदारद हूँ मैं
ख़ुशी या गम का
ना नामोनिशान हैं ये
खोज रही हूँ
अपनी ही पहेली का जवाब मैं
क्यूँ खो रही हूँ
अनचाहे एहसास के साथ मैं
ना कह पाने की
ये उलझन भी कितनी अजीब है
सोचा तो जाना
मन का तो कोई भी ना मीत है
रूह भी कुछ
बदलना है चाह रही
मेरी राहों की दिशा का मुख
मोड़ना है चाह रही
फिर क्यूँ नहीं
मैं उनके साथ चल पा रही ?
ये कैसी है दुविधा
जो मेरे दिल को है तोड़े जा रही
व्यथा से अपनी
अनजान ना हूँ
कहने को है इतना
पर फिर यूँ बेजुबान क्यूँ हूँ ?

यादें..

यादों का पिटारा
है अश्रुओं का भंडारा
ख़ुशी और गम
दोनों का इसमें अनमोल संगम
कुछ सहेजे हुए पल
कुछ अनचाही हलचल
है कैसा अजब
ये यादों का समंदर
डूब जाए जो कोई अगर
तो पार लगना है मुश्किल
मझदार फंस जाए जो कोई
तो हिम्मत ना इनसे बड़ी कोई
वो याद ही है
जो जोड़े अतीत के सुनहरे पल
वो याद ही है
जो रुला दे और कर दे हृदय कोमल
ना जाने खुदा को कैसे ये सुझाया
जो यादों का पिटारा हर एक के झोली में है  भिजवाया…

Saturday 31 August 2013

खो रही हूँ....

ये कैसी बेरुखी है उनकी
जो दिल ज़ार ज़ार कर देती है

ये कैसी डोर है बांधी उसने
जो हर बार उसकी ओर खींच लेती है

चाहे न चाहे ये मन
दौड़ पड़ता है उसके संग

कहने को है दूरी लेकिन
क्यूँ सांसें भी उसकी महसूस होती हैं

हर बार न लौटने का वादा करती हूँ खुद से
पर खुद ही उससे दूर नहीं रेह पाती हूँ ...

कहाँ जाऊन ऐ खुदा, दिशा दे
खो रही हूँ अपनी ही गलियों में, मदद दे ...

Tuesday 7 May 2013

एहसास


किसी की क़द्र उसके जाने पर होती है
रोता है इंसान पर रूह छूट चुकी होती है
जीते जी कोई मांगता है समय
पर हमारी घड़ी कभी कहाँ रूकती है
साँसे थम जाने पर गलती महसूस होती है
जी लो इस पल में, हर पल में यहाँ
क्यूंकि कोई नहीं जानता किसकी साँसे कब रूकती हैं....

व्यथित मन


बैठकर अब सबके बीच,
मेरी आंखें वो देखती हैं
जो दौर है आज
वो बीते कल में मेरा था
यूँही दौड़ दौड़ जीवन
मैंने भी गुज़ारा है
जिम्मेदारियों को कंधे पर
हँस हँस ढो कर निभाया है
मन हो रहा कुछ व्यथित है
अकेलेपन से ये ग्रसित है
मैं हँस क मन को समझा रहा
तू क्यूँ पगला रो रहा
तूने भी मेरे संग
वो दौर जीया है
जिसमें सबके संग
ज़िन्दगी का लुत्फ़ लिया है
आज ये दौर इनका है
जीने दे इन्हें
खुश रहने दे इन्हें
जो मेरा आज है
वो भी कल इनका होगा
हर इंसान इस दौर से गुजरेगा
मैं भी यूँही बैठा
सोच रहा अपने मन की व्यथा...

Monday 6 May 2013

अनजान रिश्ता



एक नाम से यूँ पहचान हो गयी
क बाकि सारी दुनिया अनजान हो गयी
उसकी कशिश की कोई सीमा न थी
के सारी काएनात की सरहदें पार हो गयी
हर लम्हा सा जी लिया उसके संग
के फिर ज़िन्दगी में खुशियाँ बेशुमार हो गयी
कुछ भी न बाकी था मिलने के सिवा
पर इंतज़ार की घड़ियों की कतार हो गयी....

जीने का गुर


खामोश सी ये रातें कुछ कह रही हैं
आंचल में अपने सपने पीरो रही हैं
दूर कहीं किसी तारे ने ख्वाहिश हैं जताई
चन्द्रमा के पास होकर भी है किसी से उसकी जुदाई
आस्मां की चमक बनाते बनाते
अपने ख्वाबों की चमक वो भूल गया
ना जाने कब होगा अधूरापन पूरा
येही सवाल है रात से कर रहा
रात मुस्कुरायी, बोली, ना उदास हो ऐ तारे
अपने ख्वाब को पूरा करना ही मकसद नहीं इस जग का, मेरे प्यारे
दूसरों को मुस्कराहट देना, जगमगाहट देना
जो तू बखूबी है कर रहा
वही तेरा ख्वाब और तेरा मकसद है बदल रहा...

तन्हाई


खामोशियाँ दायरे से छूट रही हैं
अपने क़दमों के निशाँ भी छोड़ रही हैं
कहते हैं सब जिसे मोहब्बत
मेरी तनहाइयाँ वो साथ ढूंढ रही हैं
कुछ लोग तनहाइयों को खोजते हैं शोर से बचने क लिए
हम शोर में भी तनहा हैं हो रहे
अपनों से भागते भागते परछाइयों का साथ भी हैं खो रहे
गुम हो रहे हैं अँधेरे रास्तों में
तेरा हाथ थामने की चाह में हैं रो रहे
जानते हैं ये मुमकिन ना है तेरे लिए
पर आस का दिया सरहाने रखे हैं सो रहे.....

एक हसीं रात थी वो ......


एक हसीं रात थी वो
किसी अजनबी के साथ थी वो
बातों का दौर कुछ ऐसा चला
अजनबी को हमसफ़र मान ने मन चल पड़ा
दूरियों ने रोकना चाहा
कुछ उम्र ने भी तकाज़ा दिखाया
पर जोर किसी का कहाँ चलना था
हो गया वही जो कभी सोचा न था
वो एहसास लफ़्ज़ों में बयां हो ना पायेगा
वो बिताया हुआ हर लम्हा सिर्फ यादों में खो ना जायेगा
जीया है हर उस पल को हमने
सींचा है उसे एक सपने सा मन में
कभी कभी रातों को वो हमारी याद दिलाएगा
क्या पता एक हवा का झोंका शायद उस हसीं रात को फिर ले आयेगा....

सपना या सच्चाई


सपना हो तुम या हो सच्चाई 
लगते हो जैसे हो कोई गहरी खाई
जो दूर से सुन्दर है पर पास आने पर जानी उसकी गहराई 
दिखाती सुंदर नज़ारे पर गिरा देती है जब जब मैं नज़दीक आई 
भूलते नहीं वो नज़ारे वो शामें वो रातें सुहानी 
जो पास बैठ कर की थी संग बातें पुरानी
इन्ही ख्यालों में खो कर डूब गयी हूँ उस खाई में 
आना है कठिन जान है जोखिम में 
सपना हो तुम या हो सच्चाई…